प्रमुख पारितंत्र
वन पारितंत्र
- वन पारिस्थितिक वन में परस्पर संबंधी पद्धतियों, प्रक्रियाओं ,वनस्पतियों पशुओं और पारिस्थितिक तंत्र ओं का वैज्ञानिक अध्ययन है वन प्रबंधन को वन विज्ञान, वन -संवर्धन और वन प्रबंधन के नाम से जाना जाता है ।
- एक वन परिस्थितिक तंत्र एक प्राकृतिक वुडलैंड इकाई है जिसमें सभी पौधे ,जानवर और सूक्ष्म -जीव शामिल है और वह उस क्षेत्र में वातावरण के सभी भौतिक रूप से मृतक कारकों के साथ मिलकर कार्य करते हैं।
- वन पारिस्थितिकी की विशेषताएं निम्नलिखित है-
- उष्णकटिबंधीय सदाबहार- यह वन अक्सर उन्हें क्षेत्रों में पाए जाते हैं ,जहां 150 सेंटीमीटर से ज्यादा वर्षा होती है। तापमान का भी 15 से 30 डिग्री सेल्सियस तक होना अनिवार्य है। ये वन भारत में उत्तर- पूर्वी भारत ,पश्चिमी घाट के कुछ भागों, हिमाचल के निम्न श्रेणी ,जैसे- भाबर, अंडमान -निकोबार द्वीप समूह आदि में पाए जाते हैं ।ये सदाबहार वन भी कहलाते हैं। इन वनों में पाई जाने वाली कुछ प्रमुख प्रजातियां है -सफेद देवदार, बेंत, मूली,बाँस,चपलास, गर्जन आदि।
- उष्णकटिबंधीय आद्रँ पर्णपाती वन- यह मानसूनी वन है यह वन उन भागों में पाए जाते हैं जहां औसत वर्षा 100 से 200 सेंटीमीटर के बीच होती है यह वन बहादु प्रायद्वीप के उत्तर पूर्वी भाग और हिमाचल के तराई में पाए जाते हैं। इन वनों में सागवान ,साल आदि पेड़ पाए जाते हैं जो आर्थिक रूप से काफी महत्वपूर्ण है।
- उष्णकटिबंधीय कटीले वन- ये वन उन प्रदेशों में पाए जाते हैं जहां औसत वार्षिक वर्षा 75 से 100 सेमी के बीच होती है और औसत तापमान 16 से 22 डिग्री सेल्सियस होता है। ये वन मध्य प्रदेश, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा ,राजस्थान आदि स्थानों में पाए जाते हैं ।बबूल, पलाश, जंगली ताड ,खैर आदि इन वनों के प्रमुख वृक्ष है।
- उपोषण पर्वतीय वन- ये वन उन प्रदेशों में पाए जाते हैं जहां 100 से 200 सेमी के बीच वर्षा होती है और तापमान 15 से 22 डिग्री सेल्सियस के बीच होता है ।यह वन उत्तर पश्चिमी, हिमालय, उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश और उत्तर पूर्वी पर्वतीय राज्यों के ढालों पर पाए जाते हैं ।चीड़ इस वन की प्रमुख वनस्पति है।
- शुष्क पर्णपाती वन- यह उन प्रदेशों में पाए जाते हैं जहां औसत वार्षिक वर्षा 100 से 150 सेमी और तापमान 10 से 20 डिग्री सेल्सियस के बीच होता है ।बबूल, जामुन आदि यहां के प्रमुख वृक्ष हैं।
- हिमालय के आदर्श वन- ये वन उन प्रदेशों में पाए जाते हैं जहां औसत ऊंचाई 1000 से 2000 मीटर के बीच होती है। ये वन जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश ,उत्तराखंड, उत्तरी पर्वतीय भाग, उतरी बंगला में पाए जाते हैं ।यहां की प्रमुख वनस्पतियां है -साल ,पाइन, ओक, चेस्टनट आदि।
- हिमालय के शुष्क शीतोषण वन- यह वन जम्मू कश्मीर ,लाहौल -स्पीति ,चंबा ,किन्नौर (हिमाचल प्रदेश) और सिक्किम में पाए जाते हैं। दरअसल, ये वन शंकुधारी वन है ।देवदार ,ओक ,विलो, मलबरी आदि इन वनों की प्रमुख वनस्पतियां है।
- पर्वतीय आर्द्र शीतोषण वन- जिन क्षेत्रों में पर्वतीय आधी तोषण वन पाए जाते हैं वहां का तापमान 12 से 15 डिग्री सेल्सियस के बीच होता है । ये वन पूरे हिमाचल प्रदेश में जम्मू और कश्मीर से लेकर अरुणाचल प्रदेश में पाए जाते हैं। ज्यादातर इन वनों में झाड़ियां लताएं और फर्न पाए जाते हैं। देवदार ,मैगनोलिया, चेस्टनट, सिल्वर पर इसकी प्रमुख प्रजातियां हैं।
- अल्पाइन और अर्ध्द अल्पाइन वन- यह वन हिमालय के उन प्रदेशों में पाए जाते हैं जिनकी ऊंचाई 2500 -3500 मीटर के बीच होती है। इस प्रदेश की विशेषता है छोटे और कम ऊंचे शंकुवृक्ष। केल, देवदारू आदि इन वनों के प्रमुख वृक्ष है।
- मरुस्थल वनस्पति -इस प्रदेश में औसत वार्षिक वर्षा 50 सेमी से कम होती है मरुस्थल वनस्पति अरावली के पश्चिम में राजस्थान और उत्तर गुजरात तक फैली है प्रदेश में दैनिक और वार्षिक ताप का अंतर बहुत अधिक होता है कैक्टस ,काजू ,खजूर ,अकेसिया इस प्रदेश की प्रमुख वनस्पतियां हैं।
- डेल्टाई वन - यह नदियों के डेल्टा पर समुद्र तट पर पाए जाते हैं इन्हें ज्वार वन भी कहते हैं। यह बंगाल की खाड़ी के तटीय प्रदेशों में, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु और कच्छ काठियावडा (गुजरात) ,खंभात की खाड़ी के तटीय प्रदेशों में पाए जाते हैं। मैंग्रोव इस प्रदेश की सबसे प्रमुख वृक्ष है। जिसका उपयोग इंधन के रूप में होता है सुंदरवन का डेल्टा प्रदेश में सुंदरी वृक्ष पाए जाते हैं।
वनोंं की महत्ता
- प्राचीन समय में जब आधुनिकता की अंधी दौड़ शुरू नहीं हुई थी तब प्रकृति को विशेष महत्व दिया जाता था और वनों को प्रकृति का अनूठा उपहार समझा जाता था जीव जंतु आहार और औषधि के लिए वनों पर ही निर्भर हुआ करते थे।
- सभी तरह के जीव जंतुओं के लिए वन अति आवश्यक होते हैं ऋतु चक्र को संतुलित रखने वाले वन प्रकृति का संतुलन बनाए रखने में भी मददगार होते हैं। आज वनों की तेजी से हो रही कटाई के कारण ही जंतुओं की बहुत सी प्रजातियां लुप्त हो गई है ,क्योंकि उन्हें वन ही संरक्षण प्रदान करते थे इससे प्रकृति का संतुलन बिगड़ने लगा है तेज बारिश के दिनों में मिट्टी के कटाव को रोकने और उसकी उर्वरा शक्ति बनाए रखने में भी वन महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- पेड़ पौधे अपनी जड़ों से पृथ्वी का जल अवशोषित करते हैं जो वासित होकर वायुमंडल में बादल का रूप लेकर बारिश करते हैं और इस तरह से यह चक्र लगातार चल आता रहता है।
- पर्यावरण को शुद्ध बनाए रखने में भी पेड़ पौधों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है क्योंकि वाहनों और कारखानों से निकलने वाली कार्बन डाइऑक्साइड गैस पेड़-पौधों अवशोषित कर लेते हैं और वायु प्रदूषण को कम करने में सहयोग करते हैं।
वनों का संरक्षण
- वनों की कटाई से जहां प्रत्यक्ष लाभ होता है वहां अप्रत्यक्ष हानि भी होती है।
- वनों से प्रत्यक्ष लाभ कुछ ही व्यक्तियों को होता है लेकिन अप्रत्यक्ष हानि सारे जीव जगत को होती है इसलिए वनों का संरक्षण आवश्यक है वनों के संरक्षण के लिए सरकार भी उत्तरदायित्व है क्योंकि वनों के अस्तित्व का समकालीन महत्व एवं आवश्यकता है इसलिए हर प्रकार से उनका संरक्षण होते रहना भी परम आवश्यक है केवल संरक्षण ही नहीं क्योंकि कम अधिक हम उन्हें काट कर उनका उपयोग करने को भी बाध्य है इस कारण उनका नव रोपण और परिवर्तन करते रहना भी बहुत जरूरी है हमारी वह सारी आवश्यकताएं युग युगांतर तक पूरी होती रहे जिनका आधार वन है ।
- इनकी रक्षा और जीविका भी आवश्यक थी जो वनों को संरक्षित करके ही संभव एवं सुलभ हो सकती थी आज भी वस्तु स्थिति उसने बहुत अधिक भिन्न नहीं है।
- इस सारे विवेचन- विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि वन संरक्षण कितना आवश्यक कितना महत्वपूर्ण और मानव सृष्टि के हक में कितना उपयोगी है। लोभ लालच में पड़कर अभी तक वनों को काटकर जितनी हानि पहुंचा चुके हैं, जितनी जल्दी उसकी स्थिति पूर्ति कर दी जाए ,उतना ही मानवता के हित में रहेगा, ऐसा हमारा दृढ़ विश्वास है।
घास स्थल पारितंत्र
- घास स्थल जीवन वहां पाया जाता है, जहां वर्षा 25 से 75 सेमी प्रति वर्षा के लगभग होती है ,जो वनो के लिए पर्याप्त नहीं होती, परंतु वास्तविक मरुस्थल में होने वाली वर्षा से अधिक होती है ।
- प्रारूपी घास स्थल वनस्पतियों वाले ऐसे स्थान होते हैं जो शीतोषण जलवायु में पाए जाते हैं भारत में मुख्यता ऊंचे हिमालय क्षेत्र में पाए जाते हैं ।
- शेष भारत के घास स्थल मुख्यता और सवाना किस्म के होते हैं इसका की घास स्थल पश्चिमी राजस्थान में बलुई और खारी मिट्टी वाले विशाल क्षेत्रों में फैला हुआ है जहां की जलवायु अर्ध शुष्क है और औसत वर्षा प्रतिवर्ष 200 महीने से भी कम होती है यहां शुष्क मौसम 10 से 11 मास है और वर्षा में बड़ी विभिन्न ता पाई जाती है ।
- मिट्टी सदैव अनावृत रहती है और कभी-कभी पथरीली होती है परंतु अक्सर वह बालू ही होती है जिसमें स्थिर अथवा चल होते हैं केवल नम मौसम में ही अल्पकालिक चारा उपलब्ध होता है।
- घास की पत्तरल विरल होती है और उसमें मुख्यता एक वर्षीय घास की स्पीशिज ही होती है ।
- अनेक पालतू और जंगली शाकाहारी जंतु:- जैसे घोड़े, खच्चर ,गधे इत्यादि की बड़ी संख्या को जीवित रखने के लिए घास स्थल जीवोम महत्वपूर्ण है, जो मनुष्य को भोजन दूध उन इत्यादि प्रदान करता है।
- यह परिस्थितिक तंत्र कृषि और पशु धन से बहुत प्रभावित हुआ है क्योंकि इसका उपयोग पशुधन और खेती के लिए किया जाता है इस परितंत्र के अति चारण के कारण अनुचित उपयोग से बड़ी मात्रा में जैव विविधता का चयन हुआ है जो मृदा अपरदन का भी मुख्य कारण है जिससे इस परितंत्र की प्रमुख वनस्पतियां उत्पन्न होने की संभावनाएं कम है।
मरुस्थल पारितंत्र
- मरुस्थल या रेगिस्तान ऐसे भौगोलिक क्षेत्रों को कहा जाता है जहां जल पात्र अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा काफी कम होती है।
- मरुस्थलो को वर्षा ,औसत तापमान साल में बिना वर्षा के दिनों की संख्या इत्यादि के आधार पर बांटा जा सकता है।
- भारत का थार मरुस्थल एक उष्णकटिबंधीय मरुस्थल है ये क्षेत्र प्रायः विरल आबादी, नगण्य वनस्पति, पत्तों की जगह कांटे, जल के स्रोतों की कमी, जलापूर्ति से अधिक वशीकरण आदि वाले होते हैं ।केवल 20 प्रतिशत मरुस्थल रेतीले है।
- रेत प्रायः प्रांतों में बिछी होती है। रेतीले क्षेत्रों के दैनिक तापमान में बहुत विविधता होती है।
- भूमि की जैविक शक्ति के काटने या नष्ट होने के परिणाम स्वरुप मरुस्थल जैसी दशाएं उत्पन्न हो जाती है शुल्क तथा अर्ध शुष्क क्षेत्रों में जहां भंगुर परितंत्र का पुनर्स्थापना बहुत ही धीरे-धीरे होता है वह खनन से मरुस्थलीकरण की दशाओं में उल्लेखनीय योग होता है।
- सरीसृप और कुछ कीट जैसे जंतु मरुस्थल के लिए अनुकूलित होते हैं क्योंकि उनके अध्ययन प्रवेश के होते हैं और उनके शुष्क उत्सर्जन उन्हें थोड़े से पानी पर ही निर्भर रहने के योग्य बनाते हैं जैसे ऊंट को समय-समय पर पानी पीना चाहिए परंतु काफी लंबे अर्से तक उनके उत्तर निर्जलीकरण को सहन करने के लिए कार्य किए रूप से अनुकूलित होते हैं।
- सरीसृप में लोरीकेटा की दो स्पेसी से छिपकलियों की 18 स्पेशल और सांपों के 18 स्पेशल पाई जाती है प्रमुख परभक्षी पक्षियों में गिद्ध की दो स्पेशल मिलती है।
- भारत के रेगिस्तान में मिलने वाले स्तनधारी प्राणियों में कई स्पेशल शामिल है जिनमें चूहा जैसे पूछ वाला ,चमगादड़ ,लंबोदरा, झाऊ चूहा, भारत का रोम युक्त पैरों वाला जरबिल जंगली, शुकर, जंगली बिल्लियां और पैंथर इत्यादि सम्मिलित है ।
- यदि तेजी से संरक्षण आत्मक उपाय नहीं किए गए और स्थानीय लोगों के लिए रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं कराए गए तो इस मरुस्थल में मनुष्य और पशुओं की आबादी की बढ़ती हुई संघ नेता माननीय रूप में और आगे मरुस्थलीकरण की ओर अग्रसर होगी।
जलीय पारितंत्र
- किसी जगह वस्तु के पारितंत्र को जलीय पारितंत्र कहते हैं ।
- जलिय पारितंत्र के अंतर्गत में सभी जीव जंतु आ जाते हैं, जो उस पर्यावरण पर निर्भर होते हैं या एक दूसरे पर निर्भर होते हैं ।
- जलीय इकाइयों में विविध प्रकार की वनस्पति व जंतु पाए जाते हैं जलीय तंत्र में विशिष्ट क्षेत्र हैं जिनमें विविध व विशिष्ट प्रकार के जंतु पौधे व सूक्ष्म जीव पाए जाते हैं पादप और जंतु जगत में यह विविधीकरण प्रमुखता तापमान ,लवणता , प्रकाशित मंडल,फोटिक जोन में जल में प्रकाश का प्रवेशन ,घुले हुए पोषक तत्व, कीचड़ ,रेत और अजैविक पदार्थों की उपस्थिति के कारण होता है। प्रकाश, तापमान, ऑक्सीजन जैसे कारक जलीय पारितंत्र की प्रकृति को प्रभावित करते हैं।
- जलीय पारितंत्र ओं को तीन श्रेणियों में रखा गया है
- अलवण जल पारितंत्र- झील, अनूप ,कुंड ,सरिताएं और नदियां।
- समुंद्री पारितंत्र- उतले और खुले महासागर
- खारा जल पारितंत्र- ज्वारनदमुख, लवण कच्छ, मैंग्रोव अनूप और वन।
जलीय जीव
जलीय पारितंत्र में जीवो को उनके वन रूप या स्थिति के आधार पर उन्हें पांच समूह में वर्गीकृत किया जा सकता है:-
- पटलक- यह वायु जल अंतरापृष्ठ पर रहने वाले और संकलन जीव है जैसे पलवमान पौधे और कई प्रकार के प्राणी।
- परिपादप- यह तली पंक के ऊपर निकले पदार्थों या जड़ जमाए पौधों के तनु और पत्तियों पर संगलन या चिपके रहने वाले जीव होते हैं।
- पल्वक- इस वर्ग में सभी जलीय पारितंत्र ओं में पाए जाने वाले सूक्ष्म पादप और प्रोटोजोआ आते हैं।
- तरणक - इस वर्ग में तैरने वाले प्राणी आते हैं।
- नितलक- यह जल राशि की तली या नितलस्थ क्षेत्र में पाए जाने वाले प्राणी है।
अलवण जलीय पारितंत्र
- अलवण जल पारितंत्र कार्बनिक और अकार्बनिक पदार्थों के लिए इसलिए पारितंत्र ऊपर निर्भर करते हैं। अलवण जल पारीतंत्रों को दो भागों में बांटा जा सकता है।
- सरो- अर्थात बेसिन श्रेणी पारितंत्र जैसे झिले, तलाब, कुंड, अनूप कच्छ आदि।
- सरित- अर्थात बहते हुए पारितंत्र जैसे नदियां, सरिता आदि।
- इन दोनों प्रकार के पानी तंत्रों में आने वाले जलीय स्थल है
- झीलें- अधिकांश जिले 20,000 वर्षों के भीतर हुए भूमि के रूप में भौगोलिक परिवर्तन वाले क्षेत्रों में स्थित है।
- रुध्दजलागार- रुध्दजलागारों को उत्पत्ति के आधार पर ऑफस्टेम या ऑनस्टेम कहा जाता है। ऑनस्टेम राष्ट्रीय नदी या भूमिगत स्रोतों से कुछ दूर तक पानी को पंप करके निम्न भूमि बनाए गए जलाशय से होते हैं।
- आद्र भूमियाँ- आर्द्रा भूमिया स्थाई रूप से या समय-समय पर पानी से ढके रहने वाले क्षेत्र है इन्हें आर्द्रभूमि ओके दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है:- पहला स्थलीय आर्द्रभूमियाँ ,दूसरा तटीय आर्द्रभूमियाँ।
सरित पारितंत्र- नदिया
सरित अर्थात बहते हुए जल वाले स्रोतों में नदियां ना लें और छोटी नदियां आते हैं बेहतर जल जल के अभिलक्षण हो या विशेषताओं को बदल देता है इसके दो सबसे महत्वपूर्ण लक्षण है।
- नदिया खुली, विवृत या विषमपोषी तंत्र है ।
- नदियों में किसी स्थल पर पौधे और प्राणियों के लिए और स्थाई रूप से उपलब्ध पोषकों को काम में लाना आवश्यक है।
- प्राणी -पहाड़ी रहने वाले चट्टान की सत्ता की आवाज में एक ही जगह ठहरे रहने के लिए बस साधन है टांगों के बीच में पाई जाने वाली खाली जगहों में बनाने वाला सूक्ष्म आवाज थोड़ा रक्षित है चट्टानों के नीचे सूक्ष्म आवासों में कमजोर धारा में अनिल लेट क्लेम होंगे जैसे प्राणी होते हैं तेजी से बाहर वाले आवाज में तक कम शक्तिशाली धारा में पाए जाते हैं और इसमें ठंडे पानी की मछलियां पाई जाती है।
- पौधे - पौधों में यहां केवल स्थानबंध्द वालों जैसे अच्छी तरह संगलन रूप ही जीवित बच सकते हैं।
समुंद्री पारितंत्र
पृथ्वी पर समुद्री पारितंत्र सबसे बड़ा और सबसे स्थाई पारितंत्र है ।समुद्र का पानी नमकीन है ।प्रकाश कार्बनिक उत्पादन और समुद्री जीवन के वितरण में एक महत्वपूर्ण सीमा कारी कारक है।
समुद्री आवास 2 भिन्न मंडलों में पहचाना जा सकता है-
- नितलस्थ मंडल
- वेलापवर्ती मंडल
महासागर के जीवजात- समुद्र मे जीवो की विविधता बहुत ज्यादा है प्राणियों का लगभग प्रत्येक प्रमुुख वर्ग और शैवाल का प्रत्येक प्रमुख वर्ग महासागर में कहीं न कहीं पाए जातेे हैं ।समुंद्री पारितंत्र के विस्तार को वेलाचली,नेरिटांचली,वेलापवर्ती और नितलस्थ मंडलों मेंं बांटा गया।
- वेलांचली मंडल के जीव जात- यह मंडल समुद्री पारितंत्रओं का तटीय क्षेत्र है इसे तरंगों तथा ज्वार भाटाओं की प्रचंडता , जल स्तर के उतार-चढ़ाव और तापमान, प्रकाश, लवणता तथा आद्रता कि परिवर्तनशील ता झेलनी पड़ती है। यहां घोंघा, समुद्री ऐनिमोन आदि और समुद्री जीव पाए जाते हैं।
- नेरिटांचली- इस उथले सागरीय मंडल में प्रकाश काफी गहराई तक वेधन करता है। यहां पोषको की सांद्रता ज्यादा है। यहां पाए जाने वाले डाइटम और डिनोफ्लैग्लेट्स सबसे अधिक उत्पादक पादप प्लवक है।
- वेलाप्वत्ति - मंडल के जीव जात कुल समुंद्र पृष्ठ का 90% वेला पवर्ती क्षेत्र है सबसे प्रचुरता में पाए जाने वाले वेल्लापंती पादप प्लवक केवल डाइनोफ्लैजिलेट और डाइटम है।
- नितलस्थ मंडल- यह समुंद्र का तला बनाता है यहां के जीव विषमपोषी होते हैं।
ज्वारनदमुख
कुछ नदियां वास्तविक समुंद्र में मिलने से पूर्व अपना विशेष मंडल बना लेती है ,जिसे ज्वारनदमुख कहते हैं। ज्वारनदमुख नदी और समुद्र के बीच एक संक्रमण मंडल है। ज्वारनदमुख विश्व के सबसे ज्यादा उत्पादी पारितंत्र है ज्वारनदमुख के पर्यावरण का सबसे प्रभावी लवणता का घटना -बढ़ाना है ।- ज्वारनदमुखों के जीवजात- ज्वारनदमुखी समुदाय समुंद्री जल और लवण जल और खारा पानी के तीन घटको का मिश्रण है। ज्वारनदमुख के पौधे चार मूल प्रकार के हैं:-
- पादपप्लवक
- उपातं कच्छ वनस्पति
- पंक - मैदान शैवाल और
- उपांत कच्छ वनस्पति पर उगने वाले अधिपादपीय पौधे।
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