धर्मनिरपक्षता
धरनिरपेक्षता क्या है ?
- धरनिरपेक्षता का प्रमुख मुददा धर्म है। समाज में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है की किसी एक धर्म सर्वोच्यता ,धार्मिक अल्पसंख्यको के साथ भेदभाव तथा उनके साथ उत्पीड़न में परिणित नहीं होता है
- धर्मनिरपेक्षता के तीन प्रकार के अर्थ है :-
- यह धर्म एवं राज्य के बिच संबंधो के बारे में चर्चा करती है
- भारत में इसकी प्रांसगिकता की संभावना या असंभावना के बारे में है
- सभी धर्मो के साथ इसका समान सम्मान करना अर्थात सर्व - धर्म -सम्भाव
- सभी पहलुओं पर संविधान सभा अंदर भी बहस हुई थी।
- राजीव भागर्व के अनुसार ,धर्मनिर्पेक्षय की सफलता प्रमुख पर निर्भर करती है। ये कारक है लोकतंत्र और राज्य की स्वतंत्रता।
- धर्मनिरपेक्षता कुछ मूल्यों पर टिकी है जो की लोकतंत्र एवं समान नागरिकता से संबंधित है।
- युवाल हरारी ने यह रेखांकित किया की ,धर्म -निरपेक्ष समाज में लोग विभिन्न धर्मो से संबंध रखते है जैसे हिन्दू ,मुस्लिम ,पारसी और नास्तिक।
- ये कुछ निश्चित मूल्यों का पालन करते है.ये कोड कुछ नैतिक मूल्यों और धर्म -निरपेक्ष आदर्शो पर टिके है जैसे सत्य , करुणा ,समानता ,स्वतंत्रता ,साहस उत्तरदायित्व।
- धर्म निरपेक्षता किसी धर्म - निरपेक्ष्य राज्य में भी सकती है। डी. ई. स्मिथ के "इंडिया एज ए सेक्युलर स्टेट " के मॉडल में, धर्म निरपेक्ष्य राज्य की परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है ;-इसका संबंध तीन विषयो से है :-
- व्यक्ति एवं धर्म के बिच संबंधो से राज्य दूर रहे (धार्मिक स्वतंत्रता )
- राज्य व्यक्ति एवं राज्य के बिच संबंधो से धर्म दूर रहे (व्यक्ति एक नागरिक के रूप में )
- राज्य को निरपेक्ष्य रहना चाहिए।
- स्मिथ के दृश्टिकोण में,भारत एक सफल लोकतंत्र वाला देश है जंहा पर धर्मनिरपेक्षिता की विशेषताए हिन्दू धर्म में स्थित है।
- लेकिन गैलेंटर ने स्मिथ की परिभाषा को सही नहीं माना ,उनकी आलोचना करते हुए कहा की भारतीय राज्य धर्मनिरपेक्षिता के मूल सिंद्धान्तो से अलग हो रहा है।
- उनके अनुसार धर्मनिर्पेक्ष्ता राज्य की सफलता उसकी धर्म की एक नैतिक अवधारणा पर निर्भर करती है अर्थात उसके पास धर्म का करने तथा इस पर निर्णय लेने की क्षमता है।
- अकील बिलग्रामी धर्मनिरपेक्षिता के सिद्धांत जिसमे केवल राज्य निरपेक्ष एवं विभिन्न धर्मो से समान दुरी की अवधारणा को चुनौती देते है। वे इस सिद्धांत को ख़ारिज करते है तथा एक वैकल्पिक सिधान्तो प्रदान करते है।
- उनका तर्क है की धर्मनिरपेक्षता प्र्त्येक ऐतिहासिक सन्दर्भ में नहीं उदित होती है।
भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता
- भारतीय संविधान में धर्म - निरपेक्ष शब्द को शामिल नहीं किया जब इसे 26 जनवरी ,1951 को लागु किया गया था।
- बाद में 42 वे संसोधन के माध्यम से इसे 1976 में संविधान की प्रस्थावान में जोड़ा गया। तत्प्श्चात सर्वोच्च न्यायालय ने बम्बई केस में निर्णय देते हुए इसे संविधान की प्रमुख विशेषता भी माना संविधान के अनुच्छेद 25 -30 के अंतर्गत भी धार्मिक अल्पसंखयको के अधिकार का प्रावधान दिया गया है। जो की संविधान सभा की बहसों से निकल क्र आया था।
- शेफाली झा ने धरनिरपेक्षता पर तीन वैकल्पिक तर्को की पहचान की जो की संविधान सभा की बहस में दिय गए थे।
- पहला तर्क यह था की "धर्मनिरपेक्षता का कोई सिद्धांत नहीं है "
- दूसरा तर्क यह था की धर्म और राज्य को अलग होना चाहिए।
- तीसरा तर्क जो की शेफली से प्रस्तुत करती वह है "धर्मनिरपेक्षता के साथ समान सम्मानं का सिद्धांत "
- जय प्रकाश नारायण का मानना था की धर्म से नहीं बल्कि धर्म का सामाजिक , आर्थिक और राजनितिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए इस्तेमाल करने से सांप्रदायिक हिंसा को बढ़ावा मिलता है।
धर्मनिरपेक्षता विरोधी
- जो बिंदु धर्मनिरपेक्षता के संबंध में संविधान सभा में चर्चित थे वे बाद में भी चर्चा में आये। इनके एक सबसे महत्वपूर्ण बिंदु था "जसे धर्मनिर्पेक्षता विरोधी " (एंटी - सेक्युलेजिम )के नाम से जाना गया है।
- धर्मनिरपेक्षता विरोधी लोगो में भीखू पारेख ,टी. एन. मदन और आशीष नंदी प्रमुख है। विशेष रूप से मदन यह मानते है की धर्मनिरपेक्षता ईसाई धर्म की देन है ,नंदी अपनी आलोचना को एक "एटी -सेक्युलरज्म एजेंडा "(धर्मनिरपेक्षता विरोधी एजेंडा ) की संज्ञा देते है।
- अचिन वनायक के अनुसार वे भारतीय समाज के 6 समान्य विषयो पर फोकस करते है वे है :-
- आधुनिक
- संस्कृति की समझ
- सभ्यता
- धर्म और हिन्दुवाद
- भुत एवं वर्तमान
- धर्मनिरपेक्षता एवं धर्म -निर्पेक्षिकरण : विषिष्टता एवं सार्वभौमिक ,व्यक्तिवाद एवं समुदायवाद ,नव - गांधीवाद
- राजीव भार्गव का यह तर्क था की धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत की पुनः व्याख्या या पुनः समीक्षा करने की जरूरत है।
- राज्य एवं चर्च के संबंधो पु फोकस करने के बजाय निम्न बिन्दुओ पर अधिक फोकस करना चाहिए :-
- धर्मनिरपेक्षता को धार्मिक विविधता के आधार पर देखना चाहिए।
- विविधता को सत्ता संबंधो के रूप में समझना चाहिए। धर्म -संबंधी प्रभुत्व की पोटेन्सियल को भी समझना चाहिए
- इन दो बिंदुओं के अनुसार धर्मनिरपेक्षिता को संस्थात्मक रूप में भी देखता है , धर्मनिरपेक्षता धर्म के विरुद्ध नहीं है , लेकिन यह धर्म को संस्थात्मक या धर्म के आधार पर प्रभुत्त्व का विरोधी है।
- सैद्वांतिक दुरी के सिधान्तो के साथ धर्म -निरपेक्ष्य राज्य सभी धर्मो के साथ सम्मान कर सकता है। वे भारतीय धर्मनिरपेक्षता को दुरी की सिंद्धान्तो पर देखते है।
- तंबिया के अनुसार यह संकट भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता स्पष्ट धरना न होने हे कारण पैदा हुआ है।
- नंदी और मदान का मानना है की धर्मनिरपेक्षता में प्रासंगिकता या वैधनिकरण का अभाव है
धर्मनिरपेक्षता और धार्मिक समूह
- धर्मनिरपेक्षता और निर्पेक्षिकरण दोनों अंतरसंबन्धी अवधारणए है। लेकिन शैक्षिण एवं राजनितिक परिप्रेक्ष्य में धर्मनिपेक्षता पर ज्यादा ध्यान किया जाता है।
- इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित कई लेखकों में धर्म निर्पेक्षिकरण की चर्चा की गयी है तथा इसके संबंधो के विभिन्न पहलुओं की संदर्भ में भी खासकर भारत , पाकिस्तान और बांग्लादेश के संदर्भ में चर्चा की गई है।
- यह धार्मिक समूहों के अधिकारों एवं व्यक्तियो के संबंधो की प्रकृति के बारे में है।
- धर्म - निर्पेक्षिकरण का मतलब है धर्म का सार्वजनिक नीतियों एवं सामाजिक संबंधो पर प्रभाव न होना। ,लेकिन यह धर्म को नकारता भी नहीं है। यह दिखाता है की धर्म किस आधार पक्षपात एवं भेदभाव का आधार बन जाता है।
- धर्म -निर्पेक्षिकरण की धारणा का प्रयोग करते हुए , जोया चटर्जी ने भारत एवं पाकिस्तान के विभाजन के बाद दोनों देशो के धर्म -निर्पेक्षिकरण की निति को अपनाया जो की आशिंक थी।
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