BPSC -132 MJDUR AUR KISAN

                          मजदूर और किसान  

मजदूर और किसान भारतीय समाज का सबसे बड़ा हिस्सा है।  मजदूर समाज के शोषित वर्ग से संबंध रखते  है जबकि किसान गरीब  आमिर दोनों ही वर्गो से संबंध रखते है।  ये दोनों वर्ग अपनी मांगो  कोपूरा करवाने के लिए सामूहिक रूप से राजनितिक एवं सामाजिक आंदोलन में भाग लेते है।   

मजदूर आंदोलन      

भारत में मजदूर आंदोलन को दो चरणों में बाटा  जा सकता है।  स्वतंत्रता प्रप्ति  से पूर्व एवं स्वतत्रता प्राप्ति के बाद का चरण। 

औपनिवेशिक काल  में मजदूर आंदोलन

  1. भारत में 19  वि सदी के मध्य में मजदूर आंदोलन उभर  क्र समाने आया। 
  2. संगठित मजदूर संघो को श्रमिक संघ कहा  है। अखिल भारतीय भारतीय श्रीमिक संघ की स्थपना (एक्ट )  1920  में हुई थी।  
  3. इसका मुख्य उदेश्य  था मजदूरों को संगठित करना तथा उनके आर्थिक , सामाजिक एवं राजनितिक हितो की रक्षा करना। 
  4. 1920 के मध्य  में देश में वामपंथी विचारधारा का बोलबाला था। 
  5. 1928 में वामपंथी लोगो ने मजदूरों के संघटनो पर अपना कब्जा क्र लिया था। 
  6. अखिल भारतीय श्रमिक संघ (एक्ट ) 1930  का वर्ष मजदूर आंदोलन का सबसे अच्छा काल  माना   जाता है /जब इस समय मजदुर आंदोलन चरण  सिमा पर थी।
  7. दुतीय  विश्व युद्ध  में मजदूर संघ  के नेताओ का विभाजन किया। कम्युनिस्ट ने यह दलील दी की 1941 में सेवियत यूनियन पर नाजी हमले ने युद्ध का  चरित्र बदल दिया।सम्रज्वादी युध्य अब  जनता के युध्द  में बदल गया था। 
सामूहिक कार्य एवं मुद्दे 

  • जिन  मुद्दों पर मजदूर हड़ताल करते है वे है , वेतन , बोनस , छुट्टी , कार्य के घंटे , हिंसा तथा अनुशसन , औद्योगिक एवं श्रम नीतिया इत्यादी। . 
  • मजदूर अपनी समस्यों  को हल करने के लिए  कई प्रकार के कदम उठाते है। 
  • सबसे  ज्यादा जो मजदूरों का कार्य है वह  है हड़ताल करना। 
  • 1920 में , गांधीवादी ने अहमदाबाद के टैक्सटाइल मजदूरों की हड़ताल में दखल दिया तथा उनका नेतृत्व किया। 

उत्तर - औपनिवैशिक  काल  में मजदूर आंदोलन  

  • स्वंतत्रता प्राप्ति के बाद मजदूरों की उच्च आकांशाओ पर पानी फिर गया था। उनकी सेवा शर्तो एवं वेतन में कोई खास सुधार  नहीं हुआ था। 
  • उसी समय तीन प्रमुख मजदूर संगठनों का जन्म हुआ है। 
  • भारतीय राष्ट्रिय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एक्ट ) , का जन्म 1947 में कांग्रेस द्वारा हुआ  . प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने 1948  में हिन्द मजदूर सभा का गठन किया। 
  • 1947 में सबसे ज्यादा हलतल हुई थी , तकरीबन 1811  जिनमे करीब 1840  हजार मजदूर शामिल हुए है। 
  • 1949 में कुछ क्रन्तिकारीयो  ने यूनाइटेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस गठन किया।  

प्रांतीय स्तर पर 

  • १९६०  में एक महत्वपूर्ण घटना घटी जब कुछ क्षेत्रीय संगठन भी उभर कर  सामने आये  जिनका संबंध डी. एम. के.  एवं  ए. आई.डी. एम. के. से था। 
  • शिव सेना का जन्म भी बंबई में 1967 में हुआ था। 
  • इसने भी अपना अलग मजदूर संगठन बनाया जिसका , नाम था भारतीय कामगार सेना।
  • इनका मूल उद्देश्य तथा कम्युनिस्ट एवं सोशलिस्ट मजदूर कामगार सेना।  
  • 1970 के दशक में इसका पूरी बंबई में वर्चस्व कायम हो गया था। 
  • 1978  में , उन्होने  कांग्रेस एवं एक्ट दोनों को छोड़ दिया तथा एक स्वतंत्र संगठन बनाया जिसका नाम था महाराष्ट्र गिरनी कामगार यूनियन। जब तक उनकी हत्या हुई तब तक वे बम्बई के एक मजबूत और प्रभावशाली ट्रेड यूनियन नेता बने हुए थे। 
बिना राजनितिक गठजोड़ के ट्रेड यूनियन 
  • 1960 के दशक में स्वतंत्र ट्रेड यूनियन संगठनों का उदय हुआ।  वे  से स्वत्रंत थे कियोकि इनका किसी राजनितिक पार्टी से कोई संबंध  नहीं था।  
  • इन ट्रेड यूनियन का उदय राजनितिक पार्टी  संबंधित ट्रेड यूनियनो  से खफा होकर हुआ था।
  •  इलाभटट   ने सेल्फ - इम्प्लोइड  वूमेन  एसोसिअशन का (सेवा ) गठन किया था। 
  • उन्होने  सेवा नामक संगठन का गठन इसलिए किया क्योकि महिला , मजदूरो की स्थिति ठीक नही थी। 
  • टेक्सटाइल  जदूरो ने 1982 में अनिशिचतकालीन हड़ताल की थी। उनकी मांग थी उच्चतम वेतनमान , अस्थायी मजदूरों को स्थायी भत्ते देना , तथा अवश्य भत्ता  इत्यादि। 
  • दत्ता सामंत ने ग्रामीणो के मद्दों को भी मजदूरों के साथ जोड़ा था। 
  • हड़ताल का असर हलाकि ज्यादा नहीं हुआ और यह सफल नहीं हुई।    

भारत में मजदूर आंदोलन की सीमाए 

  • भारत में मजदूर आंदोलन ने कई प्रकार की  कमियों का सामना किया है। केवल कुछ ही वर्गो  के घटक संगठित हुए है।  
  • यहाँ  संगठित क्षेत्र के मजदूर  भी ट्रेड यूनियन आंदोलन में भाग नहीं लेते है , कियोकि भारतीय अर्थव्यवस्था मुख्य तौर  पर कृषि आधारित है। 
  • मजदूरों का एक बड़ा वर्ग ट्रेड यूनियन आंदोलन में भाग नहीं लेते , क्योकि उनके लिए शहरी जीवन बहुत अस्थायी होता है। 
  • दूसरी संसे बड़ी कमजोरी है ट्रेड  यूनियन की वह  है धन की।  यह सही है की भारत में मजदूर वर्ग  जनसंख्या बहुत कम है। 
  • मजदूरों   का नेतृत्व किसी बाहरी  व्यक्ति के हाथो में होना इसकी मुख्य वजह हैं हमारे मजदूरों की शिक्षा  है  इसलिए इनका नेतृत्व राजनीतिज्ञ करते है।  

किसान आंदोलन 

छोटे एवं गरीब किसानो के आंदोलन 

स्वतंत्रता प्राप्त   के पूर्व  एवं उसके पश्चात कई  किसान आंदोलन हुए।  उनमे  कुछ उदारण इस प्रकार है :- अवध  आंदोलन  , एवं बारदोली आदि। 


  • स्वतंत्रता प्रप्ति  के पहले   किसान काफी  दयनीय हालत  में थे।  
  • उनका  एक खास वर्ग  द्वारा शोषण  होताथा , उदाहरण   के  लिए   जमींदार एवं उनके एजेंटो  द्वारा , साहूकारों  तथा औपनिवेशिक शासन के अफसरो द्वारा।   
  • जमींदारों के किसानो पर लगातार शुल्क बढ़ाया , उनसे बेगार करवायी  तथा जबरन उपहार लिए। वे साहूकारो के भारी  कर्ज के बोझ तले आ गये क्योकि उन्हें अपनी जरूरतों को पूरा करना था।  जब किसान कर्ज चुकाने की स्थिति में नहीं थे तो उन्हें उनकी जमीन से बेदखल किया गया।  उन्हें शारीरिक तौर  पर भी प्रताड़ना दी गयी। 
  • किसानो ने जमींदारों , साहूकारों तथा ओपनिवेशिक शासन के एजेंटो के खिलाफ विद्रोह शुरू किया। इसका नेतृत्व भी ग्रामीण किसानो तथा शहरी बुद्धिजिवि वर्ग ने किया , बाबा राम चंद उनमे से एक किसान थे। 
  • औपचारिक संगठन ने किसानो को एकजुट होने , रणनीति बनाने तथा कार्यक्रम तय करने में बहुत मदद की। 
  • कांग्रेस पार्टी ने 1920 से अपने  समर्थन को बढ़ाने के लिए किसानो को एकजुट किया। 1928 के बारदोली  सत्यग्रह के पश्च्यात किसानो  आंदोलन को भी इसमें मिला लिया गया। 
  • सविनय अवज्ञा आंदोलन के पश्च्यात क्रन्तिकारी राष्ट्रवादियों का यह मानना  था की कांग्रेस जमीदारो एवं पूंजीदारो के  प्रति सहानुभूति रखती है। इसलिए परिणामस्वरूप 1936 में , लखनऊ में स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में अखलि भारतिय  किसान सभा का गठन हुआ। वे बिहार प्रदेश किसान सभा के संस्थापक थे। 
  • 1937 में कई प्रांतो में कांग्रेस मंत्रिमंडल के गठन के पश्चात किसान आंदोलन में और तेजी आई। 
  • किसानो की नाराजगी और बढ़ती गई तथा उन्होंने इसका विरोध किया , प्रदर्सन किया तथा सम्मेलन एवं  सभाए  आयोजित की। 
  • स्वतंत्रता प्राप्ति के समय किसान आंदोलन को नयी ऊर्जा मिली अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए। 

तेजभागा आंदोलन 

  • तेजभागा आंदोलन पश्चिमी बंगाल का एक प्रमुख आंदोलन था। 1946 में इस आंदोलन को प्रांतीय किसान सभा ने शुरू किया था। 
  • 1947 में , किसान सभा का नेतृत्व पूरी तरह से कम्युनिस्ट के हाथो में चला गया था।  
  • कम्युनिस्ट में बंगाल की प्रतिय किसान सभा  नेतृत्व किया।  इस आंदोलन ने जल्दी की हिंसा का रूप धारण कर  लिया तथा बरगरदार तथा जोतनदारो के बिच झगड़ा भी बढ़ गया। 
  • 1947 में सरकार ने आंदोलन को कुचलने की कोशिश की तो  आंदोलन समाप्त हो गया। 

तेलंगाना आंदोलन 

  • दूसरा सबसे बड़ा आंदोलन तलंगाना  का आंदोलन था। इसकी शुरुआत 1946 में हुईथा , यह निजाम के शासन में हैदराबाद में शुरू हुआ था। 
  • यह जमींदारों के खिलाफ क्र वसूली के विरुद्ध आंदोलन था ,तथा आंदोलन के दिशा प्रमुख रूप से निजामशाही की टफ थी। लेकिन जल्दी ही इसका नेतृत्व गरीब किसानो के हाथो में आ। गया  
  • इसके बाद जमींदारों की भूमि पर कब्जा क्र लिया तथा उसे गरीब किसान में बाटा  दी गई। 
  • 1947 के आसपास इस आंदोलन ने गुरील्ला आर्मी का गठन किया जिसमे गरीब किसानो के लामबंद किया गया जो आदिवासी  अछूत थे। 
  • इस सेना ने जमींदारों से बड़ी मात्रा में हथियार छीने तथा सरकारी कर्मचारियों को बाहर खदेड़ दिया था। उन्होंने 15000 की. मि. क्षेत्र को अपने कब्जे में ले लिया था , जिसमे करीब 40,000  जनसंख्या थी।  
  • इन क्षेत्रों के प्रशासन  को मजदूरों ने चलाया था। 
  • 1951 में भारतीय सेना ने तेलंगाना आंदोलन को कुचल दिया था। 

नक्सलबाड़ी आंदोलन 

  • यह आंदोलन उत्तरी बंगाल के नक्सलबाड़ी क्षेत्र में शुरू हुआ था। 
  • इसका निशाना जमींदार एवं राज्य की एजंसिया थी ,आंदोलन हिंसा के आधार पर आधारित था 
  • इसका प्रभाव अन्य राज्यों जैसे आन्ध्रप्रदेश , मध्य्प्रदेश , एवं बिहार पर भी पड़ा था। 

अमीर  किसान एवं कृषक आंदोलन 

  • 20 वि सदी के अंत में , कई सामाजिक समूहों द्वारा आंदोलन किया गया। इनमे अमीर किसान , कुलक या पूंजीपति किसान देश के विभिन्न भागो से संबंधित थे। 
  • इसके प्रमुख किसान संगठन , दो थे , भारतीय किसान यूनियन उत्तर पदेश में , तथा पंजाब में , जिसका नेतृत्व महेंद्र सिंह टिकैत एवं भूपेंद्र सिंह मान ने किया था। 
  • दूसरा शेतकारी संगठन महाराष्ट्र में जिसका नेतृत्व शरद जोशी ने किया। 
  • कर्नाटक में भी कर्नाटक राज्य रायथा  संघ , जिसका नेतृत्व ननयुनदसा  स्वामी ने किया , खाद्भुत समाज गुजरात एवं विबास्यिगल  संगम तमिलनाडु में। 
  •  अमीर  किसान एवं कृषक आंदोलन की प्रमुख मांगे थी , मूल्यों के कमी , सब्सिडी ,देना  कर्जा माफ करना , बिजली के बिल कम करना , पानी  के चार्ज कम करना तथा कृषि मूल्य आयोग में किसानो को परिनिधित्व देना।  
  • महाराष्ट्र के  आलावा इन  आंदोलनों के छोटे उत्पादकों की समस्याओ  को नहीं उठाया। हलाकि टिकैत ने भूमि अधिग्रहण कानून को खत्म करने एवं न्यूनतम मदजूरी कानून को समाप्त करने  की मांग की। 

किसान एवं मजदूर आंदोलन पर उदारीकरण का प्रभाव 

  • आर्थिक सुधारो की शुआत 1990  के दशक से हुई थी।
  • नयी आर्थिक नीतियों का मुख्य उद्शेय बीमार एवं घाटे में चल रही लोक उधमों को बंद करना , पब्लिक सेक्टर उधमों का निजीकरण एवं विनिवेश था। 
  •  नयी आर्थिक नीतियों का मजदूरों पर इस प्रकार प्रभाव पड़ा , उनकी आर्थिक हालात  कमजोर हो गयी , निजीकरण को बढ़ावा किया गया , मजदूरों की छंटनी हो गई एवं उन्हें स्वैचिछक सेवनिर्वृीत की गयी।  
























 










  
     

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